Fit 40 થી 50 ડિગ્રી સેલ્સિયસ વચ્ચે આગામી ગરમીના મોજા માટે તૈયાર રહો.

Fit 40 થી 50 ડિગ્રી સેલ્સિયસ વચ્ચે આગામી ગરમીના મોજા માટે તૈયાર રહો.  હંમેશા ઓરડાના તાપમાને પાણી ધીમે ધીમે પીવો.  ઠંડું કે બરફનું પાણી પીવાનું ટાળો!  હાલમાં, મલેશિયા, ઇન્ડોનેશિયા, સિંગાપોર અને અન્ય દેશો "ગરમીની લહેર" અનુભવી રહ્યા છે.  આ શું કરવું અને ન કરવું:    1. *ડોક્ટરો સલાહ આપે છે કે જ્યારે તાપમાન 40 ડિગ્રી સેલ્સિયસ સુધી પહોંચે ત્યારે ખૂબ ઠંડુ પાણી ન પીવો, કારણ કે આપણી નાની રક્તવાહિનીઓ ફાટી શકે છે.*  એવું નોંધવામાં આવ્યું કે એક ડૉક્ટરનો મિત્ર ખૂબ જ ગરમ દિવસથી ઘરે આવ્યો - તેને ખૂબ પરસેવો થઈ રહ્યો હતો અને તે ઝડપથી પોતાને ઠંડુ કરવા માંગતો હતો - તેણે તરત જ ઠંડા પાણીથી તેના પગ ધોયા... અચાનક, તે ભાંગી પડ્યો અને તેને હોસ્પિટલમાં લઈ જવામાં આવ્યો.    2. જ્યારે બહાર ગરમી 38 ° સે સુધી પહોંચે અને જ્યારે તમે ઘરે આવો, ત્યારે ઠંડુ પાણી ન પીવો - ધીમે ધીમે માત્ર ગરમ પાણી પીવો.  જો તમારા હાથ કે પગ તડકામાં હોય તો તરત જ ધોશો નહીં. ધોવા અથવા સ્નાન કરતા પહેલા ઓછામાં ઓછા અડધો કલાક રાહ જુઓ.    3. કોઈ વ્યક્તિ ગરમીથી ઠંડક મેળવવા માંગતો હતો અને તરત જ સ્નાન કર્યું. સ્નાન કર્યા પછી, વ્યક્તિને સખત

चित्त की चेतना के चार खंड

🌷चित्त की चेतना के चार खंड 

१. पहला खंड - विज्ञान: जानने का काम करता है.

२. दूसरा खंड - संज्ञा: पहचानने का काम करता है. मूल्याङ्कन भी साथ में करता है.

३. तीसरा खंड - वेदना: संवेदनशील होने का काम करता है.

४. चौथा खंड - संस्कार: प्रतिक्रया करने का काम करता है.

(किसि एक परंपरा में इसी को मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहा गया केवल शब्दों का अंतर है).

१. छहों इन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा और मन) पर ये चार खंड काम करते है.. आँख पर कोई रूप आया, नाक पर कोई गंध आयी, कान पर कोई शब्द आया, जीभ पर कोई रस आया, त्वचा पर कोई श्पर्शव्य पदार्थ आया, मन पर कोई चिंतन आया तो सबसे पहले उस खंड का विज्ञान जागता है (कोई-न-कोई संवेदना होती है). मानस का पहला खंड सक्रिय होता है. उदहारण के लिए: कान पर कोई शब्द आया, मानस का पहला खंड “विज्ञान”: सक्रीय होता है, कान पर शब्द का विज्ञान जागा, पूरा शरीर एक प्रकार की (न्यूट्रल) तरंगों से तरंगित होने लगता है. 

२. इतने में मानस का दूसरा खंड “संज्ञा”: पहचानने का काम करना शुरू करता – शब्द आया है ये खंड पहचानता ही नहीं मूल्यांकन भी कर देता है “गाली” का शब्द है या “प्रशंसा” का शब्द है बस.. 

३. इतने में मानस का तीसरा खंड सक्रीय होता है वेदना (संवेदना): जैसे ही शब्द का मूल्यांकन हुआ कि “गाली” का शब्द है, वो जो पूरे शरीर में जो न्यूट्रल तरंगे/संवेदना थीं वो “दुखद” संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाएगी, और यदि शब्द का मूल्यांकन हुआ कि “प्रशंसा” का शब्द है तो वो जो पूरे शरीर में जो न्यूट्रल तरंगे/संवेदना थीं वो “सुखद” संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाएगी. यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन ...

४. ये जो मानस का चौथा खण्ड है “संस्कार”: ये प्रतिक्रया करने का काम करता है. क्या प्रतिक्रिया करता है? और किसके प्रति? ये प्रतिक्रया करता है इन “सुखद” और “दुखद” संवेदनाओं के प्रति.

 “सुखद” संवेदनाओं के प्रति प्रतिक्रया करता है कि “और चाहिए - और चाहिए” या ये सुखद संवेदनाएं यूँ ही बनी रहे, जिसे हम “राग” (चाहना) कहते है.

 “दुखद” संवेदनाओं के प्रति “नहीं चाहिए - नहीं चाहिए” कि प्रतिक्रिया करता है, इन दुखद संवेदनाओं को दूर करने की चेष्टा करता है, जिसे हम “द्वेष” कहते है. 

राग-द्वेष शरीर की संवेदनाओं के प्रति होता है (न की शरीर के बाहरी विषयों के प्रति). 

जैसे ही इन संवेदनाओं के प्रति राग अथवा द्वेष की प्रतिक्रिया होती है हमारे संस्कारों/विकारों का संवर्धन (मल्टिप्लिकेशन) होता है. और यदि इन “सुखद” अथवा “दुखद” संवेदनाओं के प्रति साक्षी भाव, समता भाव, तटस्थ भाव रखा जाय या इन “सुखद” अथवा “दुखद” संवेदनाओं को साक्षी भाव, समता भाव, तटस्थ भाव से देखा (अनुभव) जाय तो हमारे संस्कारों/विकारों की उदीर्णा (क्षय) होती है.

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 🌹गुरूजी--
जब तक जीवित हैं नाम और रूप(mind and matter) की धारा चलेगी ही। इन्द्रियाँ भी अपना काम करेंगीं ही। स्पर्श भी होगा ही।
संवेदना भी होगी ही।
और जब जब संवेदना होगी, पुराने स्वभाव के कारण तृष्णा जागेगी।
सुखद होगी तो राग की, दुखद होगी तो द्वेष की।
बस यहीं रोक लगानी होगी। वेदना तो हो, लेकिन " वेदना पच्चया तणहा" के स्थान पर " वेदना पच्चया पंन्या"(प्रज्ञा) हो, प्रज्ञा जागे।

🍁हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी तो अविद्या के कारण जो दुःख-चक्र चल रहा था, वह पलट जाएगा धर्म-चक्र में।क्या है धर्म-चक्र?
जब जब वेदना जागेगी, हर वेदना प्रज्ञा जगाये--अनित्य है, नश्वर है।
देख तो सही इसे। राग मत पैदा कर।
द्वेष मत पैदा कर।
जितनी देर हर संवेदना के साथ प्रज्ञा जागती है, नए संस्कार नही बनते।
इतना ही नही पुराने संस्कार भी काटने लगेंगे।

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छह इन्द्रिय द्वारो में से जिस किसी पर इस क्षण जो घटना घटी, उसे केवल जान कर ही नहीं रह जाते, बल्कि झट संज्ञा द्वारा पहचानते हैं। 

संज्ञा याने मानस का वह हिस्सा जो की पूर्व अनुभूतियो और स्मर्तियों के बल पर पहचानने का काम करता है।

संज्ञा ने पहचाना की हुआ प्रपंच आरम्भ।
छूट गया यह क्षण। लगे अतीत में भ्रमण करने। ऐसी अनुभूति पहले भी हुई थी तो अच्छी लगी थी या बुरी। यह मूल्यांकन होते ही प्रपंच और आगे बढ़ने लगता है।

वेदना सुखद या दुखद लगने लगती है। और तब चेतना का वह भाग जिसे संस्कार कहते है, झट अपना काम करने लगता है।उसका काम है प्रतिक्रिया करना।

इस क्षण का देखना, सुनना, सूंघना, चखना, छूना और सोचना; अच्छा लगा तो राग की और बुरा लगा तो द्वेष की प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है।

मन भविष्य में लोट पलोट लगाने लगता है। ऐसा हो, ऐसा न हो।
यों भूतकाल की याद और भविष्य की कामना, कल्पना और चितधारा पर राग द्वेष की रेल-पेल चलने लगती है।

🌷 इस क्षण जो देखना आदि हुआ उसे महज देखने आदि तक ही सीमित रखें तो न प्रपंच आरम्भ होता है, न ही बढ़ता है। अनारंभि ही प्रपंचमुक्त होता है !

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निंदा हो या प्रशंसा मात्र तरंगे ही तो हैं।

     🌷 "निंदा के शब्द"🌷

जब हमारे कानो को स्पर्श करते हैं तो अपने पुराने संस्कारो से प्रभावित हुई संज्ञा उनका अधोमुल्यन करती है और इन शब्दों को बुरा मान लेने के कारण शरीर में अप्रिय, दुखद संवेदना उत्पन्न होती है।

उसी के परिणाम स्वरुप अज्ञान अवस्था में हमारे मानस का एक हिस्सा दुर्मन हो उठता है।

द्वेष, क्रोध, कोप की प्रतिक्रिया करने लगता है।

        🌷 "प्रशंसा के शब्द"🌷

हमारे कानो को स्पर्श करते है तो यह संज्ञा उनका उध्र्वमूल्यन करती है, और उन शब्दों को अच्छा मान लेने से शरीर में प्रिय- सुखद संवेदना उत्पन्न होती है। 

उसी के परिणाम स्वरुप हमारे मानस का एक हिस्सा प्रफुल्लित हो उठता है और राग, लोभ, आसक्ति की प्रतिक्रिया करने लगता है।

प्रतिक्रिया चाहे राग की हो या द्वेष की मानस अपनी समता खो बैठता है और विकार पर विकार जगते ही जाते हैं। 

हमारी विपश्यना छूट जाती है।

निंदा या प्रशंसा सुनकर राग या द्वेष जगाते है तो हम ओरो की हानि करे या न करें, अपनी हानि तो अवश्य करते हैं। 
अतः इससे बचे और धर्मपथ पर प्रगतिशील बने रहे और अपना मंगल साधते रहें।

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 Four major segments or aggregates of the mind.

1) The first segment is called viññana, which may be translated as consciousness. 

The sense organs are lifeless unless consciousness comes into contact with them. 

For example, if one is engrossed in a vision, a sound may come and one does not hear it, because all one’s consciousness is with the eyes. 

The function of this part of the mind is to cognize, simply to know, without differentiating. 

A sound comes into contact with the ear, and the viññana notes only the fact that a sound has come.

2) Then the next part of the mind starts working: sañña, perception.

A sound has come, and from one’s past experience and memories, one recognizes it: a sound—words—words of praise—good; or else, a sound—words—words of abuse—bad. 

One gives a valuation of good or bad, according to one’s past experience.

3) At once the third part of the mind starts working: vedanā, sensation. 

As soon as a sound comes, there is a sensation on the body but when the perception recognizes it and gives it a valuation, then the sensation becomes pleasant or unpleasant, in accordance with that valuation. 

For example, a sound has come—words—words of praise—good—and one feels a pleasant sensation throughout the body or else, a sound has come—words—words of abuse—bad—and one feels an unpleasant sensation throughout the body. 

Sensations arise on the body, but they are felt by this part of the mind, the vedanā.

4) Then the fourth part of the mind starts working: sankharā reaction. 

A sound has come—words—words of praise—good—pleasant sensation—and one starts liking it: “This praise is wonderful! I want more!” 

Or else 

a sound has come—words—words of abuse—bad—unpleasant sensation—and one starts disliking it: “I can’t bear this abuse; stop it!” 

At each of the sense doors, the same process occurs: eyes, ears, nose, tongue, body. 

Similarly, when a thought or imagination comes into contact with the mind, in the same way, a sensation arises on the body pleasant or unpleasant, and one starts reacting in liking or disliking This momentary liking develops into great craving; this disliking develops into great aversion. One starts tying knots inside.

(Vipassana international newsletter. December 1985)

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

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